UA-149348414-1 Hindi Kahaniya - फूलो का कुर्ता - यशपाल

 

Hindi Kahaniya -   फूलो का कुर्ता - यशपाल 

                                      
Hindi Kahaniya -   फूलो का कुर्ता - यशपाल

Hindi Kahaniya -   फूलो का कुर्ता - यशपाल 

                              

फूलो का कुर्ता

  मुझे यदि संकीर्णता और संघर्ष से भरे नगरो में ही अपना जीवन बिताना पड़ता तो मैं या तो आत्महत्या कर लेता या पागल  हो जाता। भाग्य से बरस में तीन मास के लिए कालेज में अवकाश हो जाता है और मैं नगरो के वैमनस्यपूणं संघर्ष से भाग कर पहाड़ में अपने गाँव चला जाता हुं।
‌                                      मेरा गांव आधुनिक क्षुब्धता से बहुत दूर,हिमालय के आंचल में है। भगवान की दया से रेल,मोटर और तार के अभिशाप ने इस गांव को अभी तक नहीं छुआ है। पहाड़ी भूमि अपना प्राकृतिक श्रृंगार लिए है। मनुष्य उसकी  उत्पादन शक्ति से संतुष्ट है ।
 हमारे यहां गांव बहुत छोटे छोटे हैं। कहीं-कहीं तो बहुत ही छोटे ,दस-बीस घर से लेकर पांच-छ: घर तक और बहुत पास-पास।  एक गाँव पहाड़  की तलहटी में है तो दूसरा उसकी ढलान पर। मुंह पर हाथ लगा कर पुकारने से दूसरे गांव तक बात कह दी जा सकती है। गरीबी है, अशिक्षा भी है परंतु वैमनस्य और  असंतोष कम है।
  बंकू साह की छप्पर से छायी दुकान गाँव की सभी आवश्यकता पूरी कर  देती है। उनकी दुकान का बरामदा ही गाँव की चौपाल या क्लब है। बरामदे के सामने दालान में पीपल के नीचे खेलते हैं और ढोर बैठकर जुगाली भी करते रहते हैं।
                                                 सुबह से जोर की बारिश हो रही थी ।बाहर जाना संभव न था इसलिए आजकल  के एक प्रगतिशील लेखक का उपन्यास पढ़ रहा था।
कहानी थी एक निर्धन कुलीन युवक का विवाह एक शिक्षित युवति से हो गया था। नगर के जीवन में युवक की आमदनी से गुजारा चलता ना देख कर युवती ने भी नौकरी कर कुछ कमाना चाहा परंतु यह बात युवक के आत्मसम्मान को स्वीकार न थी। उनके संतान पैदा हो गयी; होनी ही थी । एक-दो और फिर तीन बच्चे।महगाई के जमाने में भूखे मरने की नौबत आ गई। उनका बीमार हो जाना । अपनी  स्त्री की राय से नवयुवक का एक सेठ जी के यहां नौकरी करना और उनका खुशहाल हो जाना।
‌                           एक दिन राज खुला की नवयुवक की खुशहाली का मोल उनकी अपनी योग्यता नहीं, उनकी पत्नी की इज्जत थी। पति नेटने का यत्न किया। पत्नी ने गिड़गिड़ा कर क्षमा मांगी जो - कुछ किया इन बच्चे के लिए किया। पत्नी ने केवल बच्चों को पाल सकने के लिए प्राण- भिक्षा मांगी । पति सोचने लगा- मेरी इज्जत का मोल अधिक है या तीन बच्चों के प्राणो का!
‌ मैंने ग्लानि से पुस्तक पटक दी। सोचा - यह है हमारी गिरावट की सीमा! आज ऐसा साहित्य बन रहा है जिसमें में व्यभिचार  के लिए सफाई दी जाती है। यह साहित्य हमारी संस्कृति का अधार  बनेगा !हमारा जीवन कितना छिछला और संकीर्ण होता चला जा रहा है। स्वार्थ के बावलेपन छीना झपटी और मारोमार हमें बदहवास किए दे रही है। हम अपनी उस मानवता, नैतिकता और स्थिरता को खो चुके हैं । जिसका विकास हमारे आत्मा दृष्टा ऋषियों ने संकीर्ण सांसारिकता से मुक्त होकर किया था। हम स्वार्थ की पट्टी आंखों पर बांधकर भारत की आत्मज्ञान की संस्कृति के परम शांति के मार्ग को खो बैठे हैं ।.......................क्या पेट और रोटी सब कुछ है? इसके परे मनुष्यता, संस्कृति और नैतिकता कुछ नहीं है ?ऐसे ही विचार मन में उठ रहे थे।
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बारिश थम कर  धूप निकल आई थी। घर में दवाई के लिए कुछ अजवायन की जरूरत थे। घर से निकल पड़ा कि बंकू साह से ले आऊ।
                                          बंकू साह की दुकान के बरामदे में पाच सात आदमी बैठे थे । हुक्का चल रहा था । सामने गांव के बच्चे कीड़ा कीड़ी का खेल खेल रहे थे । इस शाह की पाच बरस की लड़की फूलों भी उन्हीं में थी।
पाच बरस की लड़की का पहनावा और ओढ़ना क्या! एक कुर्ता कंधे से लटका था। फूलों की सगाई हमारे गांव से फलाग भर दूर `चूला` गांव में संतू से हो गई थी।
      संतु की उम्र रही होगी,  यही सात बरस।सात बरस का लड़का क्या करेगा घर है में दो भैंस  एक गाय और दो बैल थे । ढोर चरने जाते तो संतु छड़ी लेकर उन्हें देखता और खेलता भी रहता; ढोर काहे को किसी के खेत में जाए । सांझ को उन्हें घर हाक लाता।

बारिश थमने पर संतु अपने ढोरों को ढलवाने की हरियाली में हाक कर ले जा रहा था। बंकू साह की दुकान के सामने पीपल के नीचे बच्चों को खेलते देखा तो उधर ही आ गया।
                             संतु को खेल में आया देखकर सुनार का छ:बरस का लड़का हरिया चिल्ला उठा "आहा  ,फूलों का दूल्हा आया! "

              दूसरे बच्चे भी उसी तरह चिल्लाने लगे।
बच्चे बड़े बूढ़ों को देखकर बिना बताए समझाए भी सब कुछ सीख और जान जाते हैं  यूं ही मनुष्य के ज्ञान और संस्कृति की परंपरा चलती रहती है । फूलों पाच बरस की बच्ची थी तो क्या; वह जानती थी ,दूल्हे से लज्जा करनी चाहिए। उसने अपनी मां को गांव की सभी भली स्त्रियों को लज्जा से घूंघट और पर्दा करते देखा था । उसके संस्कारों ने उसे समझा दिया था, लज्जा से मुंह ढक लेना उचित है।
          
                                               बच्चों के चिल्लाने से फूलों लजा गई परंतु वह करती तो क्या । एक कुरता ही तो उसके कंधे से लटक रहा था । उसने दोनों हाथों से कुर्ते का आंचल उठाकर अपना मुंह छुपा लिया।

छप्पर के सामने, हुक्के को घेर कर कर बैठे प्रोढ़ आदमी फूलों की इस लज्जा को देख कर कह कहा लगाकर हंस पड़े।
              काका राम सिंह ने फूलों को प्यार से धमकाकर कुर्ता नीचे करने के लिए समझाया।
शरारती लड़के मजाक समझकर `हो - हो` करने लगे।

बंकू साह के यहां दवाई के लिए थोड़ी अजवायन लेने आया था परंतु फूलों की सरलता से मन चुटिया गया । यूं ही लौट चला।
                       सोचता जा रहा था- बदली स्थिति में ही परंपरागत संस्कार से ही नैतिकता और लज्जा की रक्षा करने के प्रयत्न में क्या- से -क्या हो जाता है । प्रगतिशील लेखकों की उघाड़ी- उघाड़ी बातें........।

हम फूलों के कुर्ते के आंचल में शरण पाने का प्रयत्न कर उघड़ते चले जा रहे हैं और नया लेखक हमारे चेहरे से कुर्ता नीचे खींच देना चाहता है.............।
                                                        By - Yashpal

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