UA-149348414-1 ता चढ़ी मुल्ला बांग दे का बहरा हुआ खुदाय- कबीर दास के इस दोहे का सच

ता चढ़ी मुल्ला बांग दे का बहरा हुआ खुदाय- कबीर दास के इस दोहे का सच

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यदि आप भारत के हिंदी भाषी राज्यों से हैं तो आप कबीर से अनजाने नहीं रह सकते। कबीर दोहे लिखते थे और कमाल के लिखते थे। अपने दोहों से धर्म की विडम्बनाओं और समाज में व्याप्त बुराईयों पर सीधा कटाक्ष करते थे । कटाक्ष में कहे गए शब्द आम बोल चाल।की भाषा में थे जो लोगो को आसानी से समझ आते थे और उन शब्दो का प्रहार सामाजिक बुराईयों और धार्मिक विडम्बनाओं पर जोरदार होता था। इसलिए कबीर प्रसिद्ध भी होते चले गए । कबीर भक्ति पर भी बोलते थे। वो अपने दोहों से भक्ति का जायज मार्ग भी बताते थे जिसमे केवल और केवल स्वार्थ से परे ईश्वरिय प्रेम था। वो किसी धर्म के अनुयायी नहीं थे लेकिन घोर आस्तिक थे। वो प्रार्थना और भक्ति की बात करते थे लेकिन किसी साकार ब्रह्म यानी की ईश्वर की नहीं बल्कि निरंकार ईश्वर की । यानी वो मूर्ति पूजा के खिलाफ थे। कबीर मानते थे की ईश्वर का कोई आकार नहीं है और न ही ईश्वर को किसी ने देखा है। हमे उसी निरंकार ईश्वर की भक्ति करनी चाहिये। कबीर का  ईश्वर को लेकर यही धारणा थी। जो इस्लाम की ईश्वर सम्बन्धी धारणा के समानार्थी है। कबीर के दोहे सदियों तक आने वाली पीढ़ियो को सबक सिखाती रहेंगी। लेकिन समाज का कटु सत्य यह है की हर दिन एक महात्मा पैदा हो और वो अपने जीवन काल में सामाजिक बुराइयो के खिलाफ सुधार करे , फिर भी समाज कभी भी पूरी तरह सही नहीं हो सकता। कबीर के दोहो से जुड़ी एक ऐसी ही बुराई के पीछे के सच के बारे में  मैं ये आर्टिकल लिख रहा हूँ।

क्या है वह विवादित दोहा ?


कंकर - पत्थर जोरि के मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ी मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय ।।

इस दोहे का अर्थ निम्न तरीके से बताया जाता है -


"कबिरदास जी कहते हैं कि मुसलमान कंकर पत्थर से एक मस्जिद बना लेते है । फिर उस मस्जिद पर चढ़कर एक मुसलमान जोर से चिल्लाता है। (कबीर ऐसा मस्जिद में दी जाने वाली अजान के बारे में कह रहे हैं) आगे वो कटाक्ष करते हुए प्रश्न करते हैं कि क्या खुदा बहरा है?

अगर आप मुसलमान हैं और आप उत्तर भारत के हिंदी भाषी राज्यों के निवासी हैं। तो आपके जीवन में ये दोहा व्यंग्य के रूप में जरूर ही सामने आया होगा। जिसे कोई जाहिल आध्यापक जिसमे जातिवाद और साम्प्रदायिकता कूट कूट कर भरा होगा और वो इस दोहे का इस्तेमाल आपके ऊपर आपको नीचा दिखाने के लिए किया होगा। वो भले ही हिंदी का अध्यापक हो या ना हो लेकिन वो आपके सामने महात्मा बन कर प्रवचन दिया होगा। चलिए उन समस्त आदरणीय गुरुओं का सरेआम ढोल पिट देते हैं।

पहले जानते हैं वो अजान होता क्या है ?


अजान मुसलमानो की प्रार्थना (नमाज पढ़ने) के लिए एक बुलावा है। इसे आप एक अलार्म की तरह समझ सकते हैं की जब नमाज का वक्त होता है तो अजान दिया जाता है। नमाज दिन भर में 5 बार पढ़ी जाती है तो अजान भी 5 बार दिया जाता है।

अजान की भाषा अरबी होती है जिसके शब्द और तर्जुमा (अर्थ) निम्न हैं -


सर्वप्रथम  अजान देने वाला यानी की मुअज्जिन चार बार 'अल्लाहो अकबर' यानी अल्लाह सबसे बड़ा है, कहता है।

इसके बाद वह दो बार कहता है, 'अशहदो अल ला इलाह इल्लल्लाह' अर्थात मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है। फिर दो बार कहता है ' अशहदु अन-ना मुहम्मदर्रसूलुल्लाह' जिसका अर्थ है- मैं गवाही देता हूँ कि हजरत मुहम्मद अल्लाह के रसूल (उपदेशक) हैं। फिर मुअज्जिन दाहिनी ओर मुँह करके दो बार कहता है 'हय-या अललसला' अर्थात आओ नमाज की ओर। फिर बाईओर मुँह करके दो बार कहता है, 'हय-या अलल फलाह' यानी आओ कामयाबी की ओर।

इसके बाद वह सामने (पश्चिम) की ओर मुँह करके कहता है ' अल्लाहो अकबर' अर्थात अल्लाह सबसे बड़ा है। अंत में एक बार 'ला इलाह इल्लल्लाह' अर्थात अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है। फज्र यानी भोर की अजान में मुअज्जिन एक वाक्य ज्यादा कहता है ' अस्सलात खैरूम मिनननौम' अर्थात नमाज नींद से बेहतर है।

यानी अजान के शब्दो के अर्थ से मतलब साफ है की कबीर का दोहा और उस दोहे को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने वाले लोग गलत है। कबीर के दोहे के गलत होने पर कुछ लोग यह कहते हैं की कबीर पढ़े लिखे नहीं थे क्योंकि उन्होंने खुद कहा था "मसि कागद छुयो नहीं, कलम गयो न हाथ" ।अतः उनको अरबी भाषा का ज्ञान नहीं था इसिलिए उन्होंने अजान को प्रार्थना समझ ऐसा बोल दिया ।

लेकिन अगर आप कबीर के तमाम दोहों को पढ़े होंगे तो आपको ये अंदाजा होना चाहिए की कबीर इतने बड़े अनाड़ी तो नहीं थे की अपने दोहे में इतना बड़ा गलती कर बैठे। तो सच क्या है ?

सच एक ही है ,उस दोहे का सही अर्थ -


"कबीरदास कहते हैं की मुसलमान कंकर पत्थर से मस्जिद बना लिया। फिर उस मस्जिद पर चढ़कर एक मुसलमान प्रार्थना (नमाज) के लिए जोर से चिल्लाता है (अजान)बुलावा देता है। आगे कबीर नमाज पढ़ने वाले मुसलमानो पर कटाक्ष करते हैं की ये कैसा भक्ति है जिसमे प्रार्थना के लिए बुलावा देना पड़े । क्या तुम इतने बहरे हो की तुम्हे चिल्ला कर बुलाना पड़े। अगर भक्ति सच्ची है तो अपने आप में खुद ही नमाज के लिए तड़प होना चाहिए और खुद बिना बुलाये आ जाना चाहिए। यहां खुदाय का अर्थ ईश्वर नहीं खुद + आय है। खुद मतलब स्वयं और आय का मतलब आना। ये कबीर की पंचमेल खिचड़ी वाली भाषा है।"

कबीर अपने एक अन्य दोहे में मूर्ति पूजा पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं की -
"पाथर पूजै हरि मीले तो मैं पूजूँ पहाड़" यानी की अगर एक पत्थर को पूजने से यदि ईश्वर मिल जाते हैं तो वो पहाड़ की पूजा करेंगे ।

          कबीर के बहुतायत दोहों में धार्मिक पाखण्ड, कर्मकांड और भक्ति पर व्यंगात्मक प्रहार देखने को मिलता है। इस कटाक्ष और आलोचनात्मक साहित्य के हिसाब से उपरोक्त दोनो ही दोहे अपने आप में सही है और कबीर भी सही हैं। वो अपने दोहे से बस भक्ति का एक सही आईना दिखाना चाहते हैं। लेकिन उसमे एक तथ्यात्मक त्रुटि है । नमाज से पहले अजान देने का जरूरी कारण है की नमाज एक पढ़ी जाने वाली सामुहिक प्रार्थना है। जिसको एक इमाम पढ़ाता है अतः सबका एक साथ नियत समय पर नमाज के लिए मस्जिद पहुचना जरूरी हैं। इस वजह से अजान दी जाती है ताकि सब एक साथ मस्जिद में नियत समय पर पहुंच सकें।


(नोट - लेखक तथ्यों की दुनिया का टॉम क्रूज है। अतः उसके लेख के भाषा में एक्शन का दिखना आम बात है। फिर भी लेखक एक उदारवादी वामपंथी है इसलिए वह आपसे उन कड़वे शब्दो जिनको  पढ़कर शायद आप आहत हुये हो उसके लिए आपसे माफी माँगता है। वैचारिक मदभेद या समर्थक होने पर अपने मन के भावों को कमेंट में जरूर प्रकट करें । )


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